इस ज़ालिम दुनिया से मुझको
आज जो तूने मुक्त किया,
अच्छा ही तो किया जो
अपनी कोख में मुझको मार दिया।
क्या करती इस जग में आकर?
इक पल चैन ना पाती, माँ!
तन पर पहले, फिर उस मन पर
बोझ ही तो बन जाती ,माँ!
तेज़ाब हाथ में, हवस नज़र में
हैवान खड़े हैं सड़कों पे,
कब तक उनसे बचते-बचते
जीवन ये जी पाती, माँ!
पढ़ लिख कर मैं चाहे जितना
आगे भी बढ़ जाती माँ!
कहीं दहेज तो, कहीं अहम् की
बलि ही मैं चढ़ जाती, माँ!
नारी का आगे बढ़ना भी
समाज कहाँ स्वीकार करे?
मासूमों को कुचल मसल कर
मर्दानगी का दम भरे,
ऐसे जग में जीना मेरा,
यूँ भी तो व्यर्थ ही था,
अच्छा ही तो किया जो
अपनी कोख में मुझको मार दिया ।
© मन की गिरह