अजन्मी व्यथा

img_8856इस ज़ालिम दुनिया से मुझको
आज जो तूने मुक्त किया,
अच्छा ही तो किया जो
अपनी कोख में मुझको मार दिया।
क्या करती इस जग में आकर?
इक पल चैन ना पाती, माँ!
तन पर पहले, फिर उस मन पर
बोझ ही तो बन जाती ,माँ!
तेज़ाब हाथ में, हवस नज़र में
हैवान खड़े हैं सड़कों पे,
कब तक उनसे बचते-बचते
जीवन ये जी पाती, माँ!
पढ़ लिख कर मैं चाहे जितना
आगे भी बढ़ जाती माँ!
कहीं दहेज तो, कहीं अहम् की
बलि ही मैं चढ़ जाती, माँ!
नारी का आगे बढ़ना भी
समाज कहाँ स्वीकार करे?
मासूमों को कुचल मसल कर
मर्दानगी का दम भरे,
ऐसे जग में जीना मेरा,
यूँ भी तो व्यर्थ ही था,
अच्छा ही तो किया जो
अपनी कोख में मुझको मार दिया ।

© मन की गिरह

बस तुम नहीं हो

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खिड़कियों से छन के आज भी
धूप पड़ती है कमरे के
उस कोने में
जहाँ रोज़ सुबह
तुम बैठा करते थे।
आज भी उस मेज़ पर
वैसे ही काग़ज़ और कलम
रखे हैं, इंतज़ार में
कि तुम फिर कोई
नज़्म लिखोगे।
आज भी गुलदस्ते में
ताज़े फूल सजे रहते हैं
जिनकी ख़ुशबू तुम्हें
बेहद पसंद थी।
वो गरम चाय का प्याला
आज भी रोज़ तुम्हारे
इंतज़ार में ठंडा हो जाता है।
देखो! कहीं कुछ भी
नहीं बदला, सिवा तुम्हारे।
बस तुम नहीं हो यहाँ
सब पहले जैसा है।

कहाँ ग़लत हूँ मैं?

c3c5d47a-d4ad-499d-9b1f-f1aac1037d2dकुछ पल अगर सुकून के
ज़िंदगी से चाहूँ
तो कहाँ ग़लत हूँ मैं

तेरे वक़्त से दो लम्हे
बस ख़ुद के लिए चाहूँ
तो कहाँ ग़लत हूँ मैं

तेरे होंठों से दो लफ़्ज़ प्यार के
सुनना अगर चाहूँ
तो कहाँ ग़लत हूँ मैं

मैंने ज़िंदगी अपनी नाम कर दी तेरे
मगर कुछ लम्हे तन्हाई में
ख़ुद संग चाहूँ
तो कहाँ ग़लत हूँ मैं

कई अरमान आँसुओं के दरिया में
डूबते देखे हैं
किसी छोटी सी ख़्वाहिश को
दिल से जो लगाऊँ
तो कहाँ ग़लत हूँ मैं

प्रेम- मिलन या विरह

0f1786ed-6c18-4726-8f44-c89579d24431प्रेम के हैं दो रंग जुदा
एक मिलन और एक विरह
एक नाम समर्पण का
एक नाम त्याग का
एक बिन बोले आँखों की
बात समझना
एक दूर रह के दुआओं में
याद करना
एक सुबह से शाम का इंतज़ार
तो
एक अगले जन्म में मिलने की
फ़रियाद करना
एक कमियों को नज़रंदाज करना
एक किसी कमी के कोई
मायने ना होना
एक रुक्मणी बन जीवन भर
साथ रहना
एक राधा बन हृदय की
धड़कन बनना
प्रेम के ही रंग दो
कैसे कहें कौन सा रंग
गहरा किस से
समर्पण या त्याग
दोनों की तुलना कैसी?
समर्पण में अहम् ना आए
तो वो श्रेष्ठ
विरह का कारण अहम ना हो
तो वो श्रेष्ठ
प्रेम तो प्रेम है
जीवन का सार यही
सृष्टि का आधार यही
इसमें अहम् का स्थान कहाँ
और अहम् हो तो
फिर वो प्रेम कहाँ

चाँद को पिघलते देखा था

IMG_8256चाँद को पिघलते देखा था
रात को आसमान से
गिर रहा था ज़मीं पे
शायद जल रहा था वो भी
किसी की याद में
शायद अनकही सी तड़प
उसने भी महसूस की थी
वही तड़प, जो वो देता है
लाखों दिलों को
हर रात
दिखा के चेहरा कोई
ख़ुद में!
चाँद को पिघलते देखा था
कल रात आसमान में

बरसात

IMG_8198बादलों से अठखेलियाँ करती हुई
बरसात ,छोड़ के गगन
चल पड़ी एक नए सफ़र पे
जैसे बाबुल के घर से
विदा होती है बेटी
नया घर, नए माहौल में
वैसे ही बरस पड़ी हैं बूँदें
खेतों-खलिहानों में
ख़ुद का वजूद मिटा कर
समर्पित होती ज़मीन को!
बेटी , बहु बन कर
लड़कपन की शरारतें छोड़ कर
मर्यादा को निभाती हुई
महकाती घर आँगन को
बिलकुल वैसे मिलकर पवन से
सौंधी सी ख़ुशबू बिखेर
देती है

यादों का पन्ना

IMG_8199.JPGयादों की किताब का
आज भी वो पन्ना
अक्सर खुल जाता है,
जब तुम मुस्कुरा के मेरा
इंतज़ार किया करते थे,
मेरी हर शरारत, हर नादानी से
तुम प्यार किया करते थे
अब जो रूठे हो तो ऐसे
कि लौटना ना होगा कभी
वो भी दिन थे जब
मुझ पे जान निसार
किया करते थे
आँखों में नमी बनके
आज भी ज़िंदा है
मुस्कराहट तेरी
वही अश्क़ ,जिनको
गिरने से पहले तुम
थाम लिया करते थे

क्यूँ ?

IMG_6297क्यूँ?

क्यूँ यक़ीं नहीं आज भी मुझपर तुम्हें

क्यूँ साबित करना पड़ता है आज भी ख़ुद को

क्यूँ ये आँसू अब असर नहीं करते

क्यूँ तुम चैन से सो जाते हो

जब नींद मेरी आँखों से कोसों दूर रहती है

क्यूँ नहीं देख पाते तुम, क्या असर करते हैं

तुम्हारे शब्दों के तीर इस दिल पर

क्यूँ मेरे आँखों से छलकते दर्द से

तुम अनजान रहते हो?

क्या वो प्यार अब नहीं जो

निशब्द होकर भी ग़ज़ल बनके

बहता था इन हवाओं में

ख़ुशबू की तरह साँसों में बसा करता था।

क्यूँ तुम अब तुम नहीं लगते

या मैं ही मैं ना रही अब!!!

 

 

 

सुकून

8b0dce7d-e7ce-4e31-afe1-14fa9a5e159dसुकून देता है
सीने से लग कर
तेरी धड़कनें सुनना,
सुकून देता है
तेरी आँखों में
कोई ख़्वाब फिर बुनना ,
सुकून देता है
यूँ ही कभी
ख़ामोश रह जाना,
सुकून देता है
हाथों में हाथ ले
चाँद को तकना,
सुकून देता है
ज़िंदगी के सफ़र में
हमसफ़र बनना,
सुकून देता है
उम्र का हर पहर
तेरे नाम करना,
तू ही ज़िंदगी है
और
तू ही ख़्वाहिश आख़री,
सुकून देता है
तेरा साथ होना
साँस थाम जाना❤️

वो अनमोल इश्क़

कैसे ना गुमान करूँ
ख़ुद पे
आज पाँव ज़मीं
की जगह
आसमान पे क्यूँ ना हों
क्यूँ ना आज इतरा के
हवाओं से बात करूँ
क्यूँ ना थिरकें ये क़दम
रेत पे निशाँ छोड़ते हुए,
आज ख़ुशी का
इज़हार क्यूँ ना करूँ अपनी
वो जिस इश्क़ को
किताबों और ख़्वाबों में
महसूस किया
आज मेरी हक़ीक़त है
ढलते हुए सूरज सा
वो केसरिया इश्क़
खिलते गुलाबों सा
वो महकता इश्क़
समन्दर में सीप सा
वो अनमोल इश्क़❤️